मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने कहा था :
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी जी से माफ़ी माँगते हुए बड़े अदब के साथ कहना चाहता हूँ :
कारवाँ ले कर चला था जानिब-ए-मंज़िल मग़र
लोग छूटते गए और आख़िर मैं अकेला रह गया !