फुर्सत में !!

बहुत फुर्सत में बैठे हैं चलो ये काम तो कर दें !

ये शाम आज की जो है वो उसके नाम तो कर दें !!

जिसने सोचा के मेरे तरकश में कोई तीर नहीं है !

नींद मेरे उस हरीफ़ की चलो हराम तो कर दें !!

इम्तिहान !!

आएंगे न लौट कर तुम किसको सदाएँ दोगे !

हम ही न रहेंगे तो फिर किसको दुआएँ दोगे !!

 

बेजान हो चुकी है कबसे ये आग़ ये तपिश !

अब राख़ को तुम कब तलक हवाएँ दोगे !!

 

शायद ये इम्तिहान है हमारे भी सब्र का !

हम भी देखेंगे तुम कितनी सज़ाएँ दोगे !!

सफ़र !!

photo of gray concrete road in the middle of jungle during daylight
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हर सुब्हो शाम शोलों से गुज़रना था हमें !

हर मोड़ पर गिर गिर के संभलना था हमें !!

 

हम कहाँ जिस्म थे जो तेरे रूबरू होते !

हम रूह थे तेरे जिस्म में ढलना था हमें !!

 

क्यों हो गए मस्तूर हम अब क्या कहें तुमसे !

हम शम्स थे हर सुबह निकलना था हमें !!

 

कितने ही हिर्स आये पर कायम रहा ज़मीर !

तेरे गेसुओं में ही आकर के उलझना था हमें !!

 

कहने को हम कोहसार थे मेरे मेहबूब लेकिन !

आ कर तेरे पहलू में ही बिखरना था हमें !!

 

तेरी नज़रों में उतर कर जाना था दिल तलक !

हर हालात में तय ये सफर करना था हमें !!

 

हम थे शमा कायम रहे कुछ कर ना पाई आतिश !

आ कर के तेरे आग़ोश में ही पिघलना था हमें !!

 

हमको भी देखना था इज़्तिराब का सबब !

सहर तेरी गली से एक बार गुज़रना थे हमें !!


मस्तूर : Hidden

शम्स : Sun

हिर्स : Temptation

गेसुओं : Hair

कोहसार: Mountain

आतिश : Fire

इज़्तिराब: Unrest

मुस्कुराइए !!

न गले से लगाइये न हाथ मिलाइये !

बस आदाब कीजिये और मुस्कुराइए !!

शिकवा न कीजिए न शिक़ायत बताइये !

बस आदाब कीजिये और मुस्कुराइए !!

न अश्क बहाइये  न ज़ख्म दिखाइए !

बस आदाब कीजिये और मुस्कुराइए !!

न हाल पूछिए और न हाल बताइये !

बस आदाब कीजिये और मुस्कुराइए !!

न पास उनके जाइये न उनको बुलाइये !

बस आदाब कीजिये और मुस्कुराइए !!

तबीअत !!

कभी इस कदर बेज़ार तबीअत नहीं रही !

कभी ज़िन्दगी इस कदर बेमुरव्वत नहीं रही !!

 

रात भी कटती नहीं और दिन भी गुज़रता नहीं !

शायद वक़्त की रफ़्तार में वो शिद्दत नहीं रही !!

 

वो शख़्स है जो आईने में आजकल खामोश है !

शायद ख़ुद से बात करने की अब आदत नहीं रही !!

 

अब कुछ वक़्त मिला है तो परेशान हो गए !

आज तक इतनी कभी फुरसत नहीं रही !!

 

इक अजनबी से हो गए वो चन्द ऱोज़ में !

मिलते तो हैं पर वो हरारत नहीं नहीं रही !!

 

चेहरे से जान लेते हैं वो मेरे दिल का हाल !

अब झूठ बोलने में वो महारत नहीं रही !!

 

अब दिल का हाल आपको क्यों करके सुनाएँ !

जो आपको अब हमसे मोहब्बत नहीं रही !!

 

है किस तरह का ये मंज़र ये कैसा शहर है !

कहने को लोग तो हैं रफ़ाक़त नहीं रही !!


हरारत : warmth

रफ़ाक़त : friendship, companionship

कारवाँ !!

मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने कहा था :

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर

लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया

 
मजरूह सुल्तानपुरी जी से माफ़ी माँगते हुए बड़े अदब के साथ कहना चाहता हूँ :

कारवाँ ले कर चला था जानिब-ए-मंज़िल मग़र

लोग छूटते गए और आख़िर मैं अकेला रह गया !