कट चुकी कितनी, है बाक़ी रह गयी कितनी
गुज़रेगी ज़िन्दगी शायद इस हिसाब में !
मैंने तो शिकायत ना की शबे-हिज्र की
क्यों चुभ रहे हैं कांटे बिस्तरे-संजाब में !
जवाब मेरे पास हैं गुम हो गये सवाल
सवाल ढूंढ़ता हूँ मैं अब हर जवाब में !
मेरा अदम बिस्मिल हुआ ज़िन्दगी तलाशते
हर मोड़ पर मिली ये नक़ाब दर नक़ाब में !
खुद जल के देखता हूँ रक्से–शरर मैं
लगता है मेरी तिश्नगी है इल्तिहाब में !