अहदे-रफ्तां !!

दिले हज़ीं में जिनका तस्सवुर है अभी तलक,

भूले से ही सही वो हमें याद तो करते होंगे !

 

पलकों में जो मस्तूर हैं अश्क़ दिले ज़ार के,

बन के गरदाब उनकी आँखों से गुज़रते होंगे !

 

चर्ख पर चमकते इस माहताब के तले,

हम सिसकते हैं तो वो भी तो जलते होंगे !

 

आती तो होगी याद उनको अहदे रफ्तां की,

बन संवर के जब वो घर से निकलते होंगे !

 

तर्के उल्फ़त से वो लगते हैं मुतमइन लेकिन,

ज़ुल्मते शब वो यकीनन पहलू तो बदलते होंगे

तुम !!

कोई भी हो मंज़र, मुझे बस तुम ही दिखते हो,,
नज़र ऐसी मेरी उलझी तेरी नज़रों से जा लिपटी !

कोई भी बात करता हूँ, तेरी ही बात होती है,
कोई भी बात जो निकली तेरी बातों से जा लिपटी !

मैं तुझको याद करता हूँ, तेरा ही नाम लेता हूँ ,
मेरी सांसों की हर जुम्बिश तेरी सांसों से जा लिपटी !

कोई भी ख्वाब हो मेरा, तेरा ही ख्वाब होता है ,
मेरे ख्वाबों ही कहानी तेरे ख्वाबों से जा लिपटी !

कोई भी साथ हो मेरे, तेरे ही साथ चलता हूँ ,
मेरे क़दमों की हर आहट तेरे क़दमों से जा लिपटी !

 

वाइज़ !!

मयखाने से निकला ही था के मिल गया वाइज़ मुझे,

कहने लगा मैं देखता हूँ रोज़ आते हो यहाँ

कुछ होश की दवा करो क्या मिल रहा पी कर तुम्हेँ ,

ये आदत बहुत ख़राब है शराब छोड़ दो !!

 

मैंने कहा अदब से मेहरबानी मोहतरम ,

आपको अब क्या कहें जिसने कभी पी ही नहीं

मयखाने को रखने दो मेरे जाम का हिसाब,

जा कर ख़ुदा का नाम लो, हिसाब छोड़ दो !

कश्मकश !!

क्या कहें क्या न कहें, बस कश्मकश में रह गए,

हम अल्फ़ाज़ ढूंढते रहे वो बात अपनी कह गए !

 

कैसे करें तामीर अब ख्वाबों के महल हम,

ऐसी हुई बरसात के अरमान सारे बह गए !

 

गुलशन में तो गवाह है हर शज़र तूफ़ान का,

शाख़ों पे अब सूखे हुए बस चन्द पत्ते रह गए !

 

कब तलक रहता यों रोशन ये दिया उम्मीद का,

इमारतें खंडहर बनीं, खंडहर भी आखिर ढह गए !

 

आखिर में वो हो कर रहा, जिस बात का अंदाज़ था,

वो अपनी राह चल दिए, हम अपनी राह चल दिए !

हिसाब !!

कट चुकी कितनी, है बाक़ी रह गयी कितनी

गुज़रेगी ज़िन्दगी शायद इस हिसाब में !

 

मैंने तो शिकायत ना की शबे-हिज्र की

क्यों चुभ रहे हैं कांटे बिस्तरे-संजाब में !

 

जवाब मेरे पास हैं गुम हो गये सवाल

सवाल ढूंढ़ता हूँ मैं अब हर जवाब में !

 

मेरा अदम बिस्मिल हुआ ज़िन्दगी तलाशते

हर मोड़ पर मिली ये नक़ाब दर नक़ाब में !

 

खुद जल के देखता हूँ रक्सेशरर मैं

लगता है मेरी तिश्नगी है इल्तिहाब में !

लक्ष्य !!

मुझे पाना है अपने लक्ष्य को,

तय करना है मीलों लम्बा रास्ता !

गुज़रना है समाज की उपेक्षा से ,

गुज़रना है अपनों के अविश्वास से !

 

इक अनकही सी तृष्णा है मन में,

मैं क्यों तय कर रहा हूँ ये रास्ता ?

क्यों भिड़ गया हूँ इस समाज से ?

क्यों भिड़ गया हूँ मेरे अपनों से ?

 

क्या पाना चाहता हूँ मैं आख़िर ?

क्या मैं चल पाऊंगा बिलकुल अकेला ?

क्या मेरा लक्ष्य बड़ा है मेरे समाज से?

क्या मेरा लक्ष्य बड़ा है मेरे अपनों से ?

 

क्यों लड़ रहा हूँ मैं सबसे?

मैं क्यों अलग़ खड़ा हूँ सबसे?

ये मेरा ही तो समाज है,

ये मेरे ही तो अपने हैं !

 

मगर क्या मैं जी सकता हूँ

अपनी आकाँक्षा का गला घोट कर ?

क्या मैं जी सकता हूँ

भीड़ का बस एक हिस्सा बन कर ?

क्या मैं जी सकता हूँ

भीड़ में बस एक चेहरा बन कर ?

 

नहीं, मुझे उठना है इस भीड़ से ऊपर ,

बनानी है खुद की अलग पहचान !

ये मेरे अपने अस्तित्व की लड़ाई है ,

नहीं बनना मुझे हिस्सा इस भीड़ का !

तय करना होगा ये मीलों लम्बा रास्ता… 

गुज़र कर जाना होगा समाज की उपेक्षा से …

गुज़र कर जाना होगा अपनों के अविश्वास से…

मुझे पाना ही होगा मेरा लक्ष्य…

लक्ष्यमेरे अपने अस्तित्व का !

लक्ष्य – मेरी अपनी अलग पहचान का !!